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  • वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ के थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। और वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके पर चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।
  • वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को भारतीय इतिहास में पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है। २३ अप्रैल १९३० को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होने लगी
  • 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फ़रवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।
  • प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकास भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।
  • कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। और इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।
  • उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया। और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।
  • अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़प्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।
  • 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। परन्तु इनके में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।
  • 22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।

जन्म स्थान ग्राम – गाँव बुधाणी, पौड़ी गढ़वाल
पिता- श्री रेवती नंदन बहुगुणा
माता- श्रीमती दीपा देव

उपनाम- धरतीपुत्र, हिमपुत

गाँव बुधाणी, पट्टी चलणस्यूँ, पौड़ी गढ़वाल में जन्में हेमवती नंदन बहुगुणा जी एक राजनेता के साथ-साथ बहुत अच्छे समाजसेवी भी थे। उनका जन्म 25 अप्रैल 1919 को उत्तराखंड में हुआ था । उनका परिवार बाद में उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद जिले में रहने लगा। उनकी मृत्यु 17 मार्च 1989, क्लीवलैंड, ओहियो, संयुक्त राज्य अमेरिका में हुई।

शिक्षा

हेमवती जी की प्रारम्भिक शिक्षा गढ़वाल में हुई, आगे की शिक्षा डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून और राजकीय विद्यालय इलाहाबाद में सम्पन्न हुई।उन्होंनेन्हों इलाहाबाद वि.वि. से 1946 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

व्यक्तिगत जीवन

बहुगुणा जी के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पहला बेटा विजय बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके है। दूसरा बेटा शेखर बहुगुणा और बेटी रीता बहुगुणा भी राजनीति की दुनिया अपना कदम जमाये हुए है ।

राजनीतिक जीवन

बहुगुणा जी का राजनीतिक जीवन 1942 से प्रारम्भ होता है, जब वे अध्ययन के दौरान जेल गए। इस बीच इन्होंने ‘विद्यार्थी आन्दोलन’ में खुलकर भाग लिया। बहुगुणा जी इलाहाबाद वि.वि. में ‘स्टूडेन्ट यूनियन वर्किंग कमेटी’ के सदस्य और फेडरेशन के सेक्रेट्री रहे। कई ट्रेड यूनियनें गठित कीं। इण्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सेकेट्री और आल इण्डिया डिफेन्स वर्कर्स फेडरेशन के प्रेसीडेन्ट (1953-57) रहे। 1960-69 में मण्डल, जिला और प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के सदस्य और महासचिव रहे। 1975 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य, कार्यकारिणी में विशेष आमंत्रित सदस्य और सेक्रेट्री जनरल रहे। बहुगुणा जी में विलक्षण संगठन क्षमता थी। इस महारथीपन से कई दिग्गज नेता बहुगुणा जी के इन गुणों के कायल थे। 

संदर्भ साभार : उत्तराखंड मेरी जनभूमि :  https://umjb.in/gyankosh/hemvat